परीक्षाओं का दौर शुरू है, छात्र-छात्राओं पर बहुत ही दबाव बना हुआ है, कुछ दिनों में परीक्षा का निकाल भी आने लगेगा। यह दौर बेहद ही नाजुक होता है। संवेदनशील होता है। इन दिनों में समाचार पत्रों में, आस-पड़ोस में तरह-तरह के खबरें पढ़ने-सुनने को मिल जाते हैं।
वक़्त बदल गया है, परिवेश भी बदल गए है, तो आखिर परवरिश का तरीका कब बदलेगा? तरीका न बदले न सही, कोई बड़ी बात नहीं। पर सोच, समझ एवं व्यवहार जरूर ही बदलना होगा। जनेरेशन गॅप मिटाना बहुत ही आवश्यक हो गया है। आज की युवा बहुत सारी सम्भावनाओं को तलाशने लगी है। उनके पास जानकारी का भंडार सा आ गया है। ये तकनीकी युग है। आज से १५-२० साल पहले तक जो बातें, जो जानकारी हम तक अपनी पहुँच नहीं बना पाती थीं, आज हर किसी के उँगलियों की नोक पर है। यही है क्रांति, तकनिकी क्रांति। ऐसी ही एक क्रांति अब अभिभावकों को, शिक्षकों को और समूचे समाज को भी लानी होगी, अपनी सोच में, अपने समझ में। बदलते समय के साथ सभी को बदलना होगा। युवा वर्ग को ये बदलाव विरासत में मिल रही है। परन्तु इस बदलाव का अभिभावकों द्वारा, शिक्षकों द्वारा, समाज द्वारा नजरअंदाज करना दुर्भाग्यपूर्ण साबित होता जा रहा है। आज की युवा पीढ़ी बड़ों के प्रति सम्मान, आदर का निर्वहन करती जरूर है, परन्तु अब उसे बड़ों द्वारा तुगलकी फरमान सुनना नहीं भात। क्रांति का दौर है, बगावत कर बैठते हैं। आज की युवा को पर्सनल स्पेस की दरकार है। अपनी पसंद, नापसंद जताने का अधिकार चाहते हैं। चाहते हैं कोई उनकी बात सुने, समझे। वो अपना सही-गलत खुद तय करना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि उनके पास जानकारियों का भंडार है। समझ है। तकनीकी है। पहुँच है। वो आत्मनिर्भर होना चाहते हैं। उन्हें मार्गदर्शन चाहिए, परन्तु ऊँगली पकड़कर चलना उनके लिए बीते दिनों की बात हो गयी है। तो क्या ये गलत है? क्यों है ये गलत?
इस युग में जब हम आधुनिक तकनीकी के जरिये यंत्रों को आत्मनिर्भर बनाने की अथक कोशिश में हैं, तो क्या इंसानी बच्चों को आत्मनिर्भरता की दरकार नहीं होनी चाहिए? यंत्रों को तो हम दिन-ब-दिन बेहतर से बेहतरीन बनाते जा रहे हैं। यंत्रों की बुद्धिमत्ता लगातार विकसित किये जा रहे हैं। परन्तु क्या उतनी ही तेजी और सजगता से हम अपनी सोच को समय के साथ बदल पा रहे हैं, बेहतर कर पा रहे हैं? यदि कर सकें तो इसी में भलाई है। क्योंकि वक़्त तो तेजी से बदलते जा रहा है। उतनी ही तेजी से आने वाली पीढ़ी भी इस बदलाव में ढलती-घुलती जा रही है। एक छोटा सा उदहारण है की महज एक-डेढ साल का अबोध बच्चा मोबाइल का उपयोग बखूबी करने लगा है। सर मत खुजाइये, यही सच है। यकीन न आये तो खुद पता लगा लीजिये, ऐसा ही पाएंगे। बच्चे बहुत ही कम उम्र में बहुत कुछ सीखते जा रहे हैं। उनकी रूचि-अरुचि भी बदलती जा रही है, आज उन्हें कुछ पसंद है, तो कल कुछ और ही।
हम जीव हैं, इंसान हैं, माँ के गर्भ से जन्मे हैं, किसी साँचे से ढल कर नहीं निकले हैं की हर कोई हूबहू एक सरिका हो। हर किसीका अपना व्यक्तित्व होता है, अपना वजूद होता है। अपनी पसंद-नापसंद होती है। सब की समझ, बुद्धि एवं काबिलियत भी एक सी नहीं होती। कोई चाहत रखना एक बात है, और उस चाहत का पूरा होना न होना एकदम ही अलग। सभी चाहते हैं की उनके बच्चे पढ़-लिख कर एक अच्छा भविष्य बनाये। इसमे कोई गलत बात नहीं है। परन्तु बच्चों पर अपनी ये चाहत थोपना की मेरा बेटा या मेरी बेटी डाक्टर बनें, इंजीनियर बने, आइ. एस. बने, विदेश जाये, या मेरे बिज़नेस में मेरा हाथ बंटाए कहाँ तक सही है। ऐसा करना बच्चों को दबाव में डालना है। उनके रूचि के विरुद्ध, उनकी काबिलियत के विरुद्ध। कई दफ़ा बच्चे भी समझते हैं की माता-पिता को उनके बेहतर भविष्य की फ़िक्र है, और वे भरसक प्रयत्न भी करते हैं की माँ-पिता के सपनों को साकार कर सकें। कई कर भी लेते हैं। कई नहीं भी कर पाते। जो कर पाते हैं उन्हें सिर-आँखों पर बिठा लिया जाता है। जो बिचारे नहीं कर पाते वो नालायक, निकम्मों की उपाधियों से लाद दिए जाते हैं।
हम ये भूल जाते हैं की हम भी प्रकृति के नियमों से बँधे हैं, हमारा आचार-विचार, हमारी बुद्धि, हमारी समझ ये सब परिस्थितिजन्य होती हैं।इंसान बुद्धिमान होने के साथ ही साथ अति भावुक भी होता है। उसका हर कदम, हर निर्णय, भावनाओं से प्रभावित रहते हैं। भावनायें जहाँ हमें हिम्मती बनाते हैं, वहीँ हमें बेहद कमजोर, असहाय भी कर देती हैं। हमारी भावनाओं का स्वस्थ रहना बेहद ही जरुरी है। जहाँ हमारी भावना दूषित हुई, हमारा व्यवहार भी दूषित हो जाता है। कहते हैं न की मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। यही प्रयत्न होना चाहिए की मन में कभी भी, किसी भी तरह का खटास पैदा न होने पाये। जब मन टूट जाता है, तब बुद्धि, विवेक, चातुर्य, समझ किसी काम नहीं आते, बेबस हो जाते हैं। तो यही कोशिश करें की अपनी इच्छाओं, आकांछाओं को बच्चों के मन:पटल पर इस कदर न थोपें की उनका मन कचोट उठे, तड़प उठे। चोटिल मन सही निर्णय नहीं कर पाता। चोटिल मन प्राणघातक हो जाता है। उसे अच्छे-बुरे की समझ नहीं रहती। सर्वत्र अँधकार ही अँधकार फैल जाता है, उजियारे का कहीं नामों-निशाँ नहीं रह पाता। टुटा हुआ मन जीवन की डोर तोड़ते देर नहीं करता। संकोच भी नहीं। अनुनय-विनय भी नहीं। तो सजग हो जाएँ, सचेत हो जाएँ कि कहीं आप भी किसी कोमल मन को कुण्ठित तो नहीं कर रहे? किसी मन पर अनावश्यक बोझ तो नहीं डाल रहे? अपनी चाहत, उम्मीद, मान-सम्मान के बोझ तले तो नहीं दबा रहे? संभल जाएँ इससे पहले की कहीं कोई देर न हो जाये। ये बात जाहिर कर दें की हम चाहते हैं की तुम जीवन में खूब तरक्की करो। परन्तु तुम्हारी ख़ुशी, तुम्हारी पसंद से ऊपर हमारे लिए कुछ भी नहीं। खुद को भी एक बात समझा लें की संसार में धन-दौलत, ऐश्वर्य-शोहरत ही सब कुछ नहीं होता, आत्म-शांति, आत्म-संतुष्टि से ज्यादा कीमती और कुछ नहीं। वो कहते हैं न की मन चंगा, तो कठौती में गंगा।
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