शनिवार, 12 अप्रैल 2014

खेलोगे, कूदोगे होगे ख़राब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब

                                                                                                              चित्र साभार : फ्लिकर
परीक्षाओं का दौर शुरू है, छात्र-छात्राओं पर बहुत ही दबाव बना हुआ है, कुछ दिनों में परीक्षा का निकाल भी आने लगेगा। यह दौर बेहद ही नाजुक होता है। संवेदनशील होता है। इन दिनों में समाचार पत्रों में, आस-पड़ोस में तरह-तरह के खबरें पढ़ने-सुनने को मिल जाते हैं। 
वक़्त बदल गया है, परिवेश भी बदल गए है, तो आखिर परवरिश का तरीका कब बदलेगा? तरीका न बदले न सही, कोई बड़ी बात नहीं। पर सोच, समझ एवं व्यवहार जरूर ही बदलना होगा। जनेरेशन गॅप मिटाना बहुत ही आवश्यक हो गया है। आज की युवा बहुत सारी सम्भावनाओं को तलाशने लगी है। उनके पास जानकारी का भंडार सा आ गया है। ये तकनीकी युग है। आज से १५-२० साल पहले तक जो बातें, जो जानकारी हम तक अपनी पहुँच नहीं बना पाती थीं, आज हर किसी के उँगलियों की नोक पर है। यही है क्रांति, तकनिकी क्रांति। ऐसी ही एक क्रांति अब अभिभावकों को, शिक्षकों को और समूचे समाज को भी लानी होगी, अपनी सोच में, अपने समझ में। बदलते समय के साथ सभी को बदलना होगा। युवा वर्ग को ये बदलाव विरासत में मिल रही है। परन्तु इस बदलाव का अभिभावकों द्वारा, शिक्षकों द्वारा, समाज द्वारा नजरअंदाज करना दुर्भाग्यपूर्ण साबित होता जा रहा है। आज की युवा पीढ़ी बड़ों के प्रति सम्मान, आदर का निर्वहन करती जरूर है, परन्तु अब उसे बड़ों द्वारा तुगलकी फरमान सुनना नहीं भात। क्रांति का दौर है, बगावत कर बैठते हैं। आज की युवा को पर्सनल स्पेस की दरकार है। अपनी पसंद, नापसंद जताने का अधिकार चाहते हैं। चाहते हैं कोई उनकी बात सुने, समझे। वो अपना सही-गलत खुद तय करना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि उनके पास जानकारियों का भंडार है। समझ है। तकनीकी है। पहुँच है। वो आत्मनिर्भर होना चाहते हैं। उन्हें मार्गदर्शन चाहिए, परन्तु ऊँगली पकड़कर चलना उनके लिए बीते दिनों की बात हो गयी है। तो क्या ये गलत है? क्यों है ये गलत?

इस युग में जब हम आधुनिक तकनीकी के जरिये यंत्रों को आत्मनिर्भर बनाने की अथक कोशिश में हैं, तो क्या इंसानी बच्चों को आत्मनिर्भरता की दरकार नहीं होनी चाहिए? यंत्रों को तो हम दिन-ब-दिन बेहतर से बेहतरीन बनाते जा रहे हैं। यंत्रों की बुद्धिमत्ता लगातार विकसित किये जा रहे हैं। परन्तु क्या उतनी ही तेजी और सजगता से हम अपनी सोच को समय के साथ बदल पा रहे हैं, बेहतर कर पा रहे हैं? यदि कर सकें तो इसी में भलाई है। क्योंकि वक़्त तो तेजी से बदलते जा रहा है। उतनी ही तेजी से आने वाली पीढ़ी भी इस बदलाव में ढलती-घुलती जा रही है। एक छोटा सा उदहारण है की महज एक-डेढ साल का अबोध बच्चा मोबाइल का उपयोग बखूबी करने लगा है। सर मत खुजाइये, यही सच है। यकीन न आये तो खुद पता लगा लीजिये, ऐसा ही पाएंगे। बच्चे बहुत ही कम उम्र में बहुत कुछ सीखते जा रहे हैं। उनकी रूचि-अरुचि भी बदलती जा रही है, आज उन्हें कुछ पसंद है, तो कल कुछ और ही। 

हम जीव हैं, इंसान हैं, माँ के गर्भ से जन्मे हैं, किसी साँचे से ढल कर नहीं निकले हैं की हर कोई हूबहू एक सरिका हो। हर किसीका अपना व्यक्तित्व होता है, अपना वजूद होता है। अपनी पसंद-नापसंद होती है। सब की समझ, बुद्धि एवं काबिलियत भी एक सी नहीं होती। कोई चाहत रखना एक बात है, और उस चाहत का पूरा होना न होना एकदम ही अलग। सभी चाहते हैं की उनके बच्चे पढ़-लिख कर एक अच्छा भविष्य बनाये। इसमे कोई गलत बात नहीं है। परन्तु बच्चों पर अपनी ये चाहत थोपना की मेरा बेटा या मेरी बेटी डाक्टर बनें, इंजीनियर बने, आइ. एस. बने, विदेश जाये, या मेरे बिज़नेस में मेरा हाथ बंटाए कहाँ तक सही है। ऐसा करना बच्चों को दबाव में डालना है। उनके रूचि के विरुद्ध, उनकी काबिलियत के विरुद्ध। कई दफ़ा बच्चे भी समझते हैं की माता-पिता को उनके बेहतर भविष्य की फ़िक्र है, और वे भरसक प्रयत्न भी करते हैं की माँ-पिता के सपनों को साकार कर सकें। कई कर भी लेते हैं। कई नहीं भी कर पाते। जो कर पाते हैं उन्हें सिर-आँखों पर बिठा लिया जाता है। जो बिचारे नहीं कर पाते वो नालायक, निकम्मों की उपाधियों से लाद दिए जाते हैं। 

हम ये भूल जाते हैं की हम भी प्रकृति के नियमों से बँधे हैं, हमारा आचार-विचार, हमारी बुद्धि, हमारी समझ ये सब परिस्थितिजन्य होती हैं।इंसान बुद्धिमान होने के साथ ही साथ अति भावुक भी होता है। उसका हर कदम, हर निर्णय, भावनाओं से प्रभावित रहते हैं। भावनायें जहाँ हमें हिम्मती बनाते हैं, वहीँ हमें बेहद कमजोर, असहाय भी कर देती हैं। हमारी भावनाओं का स्वस्थ रहना बेहद ही जरुरी है। जहाँ हमारी भावना दूषित हुई, हमारा व्यवहार भी दूषित हो जाता है। कहते हैं न की मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। यही प्रयत्न होना चाहिए की मन में कभी भी, किसी भी तरह का खटास पैदा न होने पाये। जब मन टूट जाता है, तब बुद्धि, विवेक, चातुर्य, समझ किसी काम नहीं आते, बेबस हो जाते हैं। तो यही कोशिश करें की अपनी इच्छाओं, आकांछाओं को बच्चों के मन:पटल पर इस कदर न थोपें की उनका मन कचोट उठे, तड़प उठे। चोटिल मन सही निर्णय नहीं कर पाता। चोटिल मन प्राणघातक हो जाता है। उसे अच्छे-बुरे की समझ नहीं रहती। सर्वत्र अँधकार ही अँधकार फैल जाता है, उजियारे का कहीं नामों-निशाँ नहीं रह पाता। टुटा हुआ मन जीवन की डोर तोड़ते देर नहीं करता। संकोच भी नहीं। अनुनय-विनय भी नहीं। तो सजग हो जाएँ, सचेत हो जाएँ कि कहीं आप भी किसी कोमल मन को कुण्ठित तो नहीं कर रहे? किसी मन पर अनावश्यक बोझ तो नहीं डाल रहे? अपनी चाहत, उम्मीद, मान-सम्मान के बोझ तले तो नहीं दबा रहे? संभल जाएँ इससे पहले की कहीं कोई देर न हो जाये। ये बात जाहिर कर दें की हम चाहते हैं की तुम जीवन में खूब तरक्की करो। परन्तु तुम्हारी ख़ुशी, तुम्हारी पसंद से ऊपर हमारे लिए कुछ भी नहीं। खुद को भी एक बात समझा लें की संसार में धन-दौलत, ऐश्वर्य-शोहरत ही सब कुछ नहीं होता, आत्म-शांति, आत्म-संतुष्टि से ज्यादा कीमती और कुछ नहीं। वो कहते हैं न की मन चंगा, तो कठौती में गंगा। 

                                                                                                                                              चित्र साभार : विकिपीडिआ 

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

तितली-सा मासूम बचपन (Don't Grow Up, It's a Trap)

                                                                                                   चित्र साभार : विकिपीडिआ

 तितली का वजूद उसकी मासूमियत में है, सुंदरता में है, स्वच्छन्दता में है। फिर ये कैसी महत्त्वकांक्षा है? ये कैसा डर है? जिंदगी से बढकर महत्त्वकांक्षा? जीवन का मोह नहीं, समाज का, प्रतिष्ठा का डर। किसके लिए ये दिखावा? कच्चे घड़े में पानी भरने कि क्या अनावश्यक जल्दबाजी? तितली से शहद बनवाने कि ये जिद क्यों? बछड़ों को जुए में जोड़ने कि जल्दबाजी क्यों? कहते हैं कि सब्र मीठा फल देती है तो फिर ये छटपटाहट क्यों? नहीं, नहीं, सख्ती से नहीं नरमी से काम लो भई!

बच्चों का मन तितली कि तरह होता है। बच्चे जब तक अपनी धुन में रमें रहते हैं, और कोई टोका-टाकी नहीं करता, वो मस्त हो रमते रहते हैं। तितली कि ही तरह कभी इस फूल, कभी उस। कभी इस बगिया, कभी उस। खूशबू और सौंदर्य कि संगत में रहते-रहते तितली भी कितनी ख़ूबसूरत हो जाती है। फूलों सी ही नाजुक। कोमल। चंचल। मोहक। पर आह! फूलों ही कि तरह क्षण-भंगुर भी। जरा सा आघात, और वजूद नष्ट। तितली का वजूद स्वच्छंद हो रमते रहने में है। फूलों संग अठखेलियाँ करने में है। तितली को आलिंगन नहीं पसंद। आलिंगन में बंधन का, स्वामित्व का बोध होता है। तितली को बंधन नहीं पसंद। उसे स्वछन्द हो फूलों को चूमना खूब भाता है। चुम्बन में बंधन नहीं। उसे हवा के संग निर्भीक हो झूलना भाता है।उसे जंगलों-पहाड़ों में विचारना भी अच्छा लगता है। नदी कि कल-कल संगीत में झूमना भी अच्छा लगता है। पत्थरों, चट्टानों पर बैठना भी अच्छा लगता है।  तितली को पकड़ने की, कैद करने की चेष्ठा मूर्खता है। घोर मूर्खता। तितली को बागों में समेट कर नहीं रखा जा सकता। 

एक किस्से में पढ़ा था की किसी समय कोई किट कृमिकोष से निकलकर एक तितली के रूप में परिवर्तित होने को लालायित था। किसी व्यक्ति ने कृमिकोष से बहार निकलते तितली को संघर्ष करते हुए देखा। उससे तितली का वो संघर्ष देखा नहीं जा रहा था, तितली को हो रहा यह कष्ट उससे बर्दाश्त नहीं हो रहा था, उसने सहायता करने की ठानी और एक पतली छड़ी की मदद से तितली की कृमिकोष से निकालने में सहायता की। तितली जल्द ही कृमिकोष से बहार आ गयी। एक नए संसार में। उस व्यक्ति ने अब एक राहत की सांस ली।  वह व्यक्ति बहुत ही प्रसन्न हुआ। कुछ क्षण उत्सुकता-वश वह तितली को निहारता रहा। उसे लगा की तितली अब उड़ी की तब उड़ी। वह देखता रहा। कुछ समय बीत जाने के बाद भी तितली रेंगती ही जा रही थी। उसने ध्यान दिया तो उसने देखा की तितली के पंख ठीक से खुल नहीं पाए हैं। सहसा ही उसे यह अहसास हुआ की कहीं उस छड़ी से तो कोई आघात नहीं लग गया। अरे! यह क्या हो गया मुझसे। अब उसे यह अहसास हो चुका की कृमिकोष से बहार निकलने की स्वाभाविक प्रक्रिया में नाहक ही हस्तक्षेप किया। उसने एक मासूम तितली को असहाय बना दिया। ऐसी सहायता किस काम की जिसने इस सुन्दर, मोहक, चंचल, अबोध तितली को जीवन भर के लिए लाचार बना दिया? 

अब वह युग नहीं रहा की लोहार का बच्चा लोहार, सोनार का बच्चा सोनार। अब शिक्षा परम्परागत घरेलू व्यवसाय सिखना भर नहीं रहा। शिक्षा अब विद्यालयों में अपना घर बना चुकी है। समाज में यह बदलाव आधुनिकता बदलाव की देन है। शिक्षा परम्परागत दक्षता या योग्यता के आधारबिंदु पर नहीं, बल्कि बच्चे की व्यक्तिगत रूचि, योग्यता एवं विवेक के आधार पर होना चाहिए। शिक्षा सहज होना चाहिए।  सरल होना चाहिए। शास्‍त्रों में उल्लेख है कि 'अति वर्जस्‍य सर्वत्र', आज की शिक्षा प्रणाली पर यह उक्ति पूरी तरह सटीक बैठता है। शिक्षा प्रतिस्पर्धा बना दी गई है। घुड़दौड़। अभिभावक, शिक्षक एवं समाज - घुड़सवार। बच्चे - घोड़े। प्राचीन-काल में विदेशों से घोड़े आयत किये जाते थे। अब विद्यार्थी निर्यात किये जाते हैं। तब तक्षशीला हुआ करता था अब हारवर्ड, कैंब्रिज। तब शिक्षा निर्यात की जाती थी, अब आयात। अभूतपूर्व, अविश्वसनीय, प्रचण्ड - दबाव। दबाव प्रतिस्पर्धा का, दबाव मान-सम्मान का, दबाव अव्वल रहने का और दबाव उम्मीद का। इन सभी दबाव के बीच बच्चे की मन:स्थिति, बच्चे की इच्छा, बच्चे का रूझान दबा ही रह जाता है। जडवत। जैसे अंगद के पैरों तले आ गया हो। 

तारे ज़मीन पर, थ्री इडियट्स तथा उड़ान जैसी फिल्में कोर-कल्पित नहीं वरन समाज के ही दर्पण हैं। और दर्पण जहाँ सुन्दरता,कोमलता दिखाता है, वहीँ घिनौना सच (चेहरा) भी। कितनी भी आँखें बंद कर लें, परदे लगा लें। मानें ना मानें। एक हद के बाद बच्चे दबाव झेल नहीं पाते। टूटने लगते हैं। बिखरने लगते हैं। बिलखने लगते हैं। लेकिन उनका बिलखना नजरअंदाज़ कर दिया जाता है। गीता पाठ पढ़ाया जाता है। कसमें दिलाई जाती हैं। दुहाई दी जाती है। इन सब हथकण्डों से काम न चला तो चाबुक तैयार! कच्चा बाँध पानी की धार आखिर कब तक संभाल सकता है। टूट ही जाता है। मुर्छित। अस्तित्व विहीन। फिर पानी ही पानी। हाहाकार। मातम। पछतावा। दोषारोपण। अधूरापन। शून्यता। कोई शिक्षा नहीं। फिर वही जीवन। फिर वही मरण। 

इस शोषण से उत्थान हेतु कौन मसीहा आएगा? क्या कहा? यह शोषण नहीं है? यही जरुरी है? यही उत्थान है? यही परम्परा है? बहुत खूब। जो संसार के सुन्दर, मासूम भविष्य को सूली पे चढ़ा दे। वाह क्या खूब परम्परा है ये भी! वाह क्या बढियां उत्थान है ये! बहुत खूब! Bravo!!!

                                                                                                            चित्र साभार : flickr

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

एक जमाना वो भी था, और एक जमाना ये भी है

                                                                                     चित्र साभार : glycerine102, flickr.com 

"बदलते वक्त के साथ-साथ सामाजिक एवं व्यक्तिगत परिवेश भी बदलने लगे हैं. परिवर्तन प्रकृति का नियम है ऐसा कहा जाता है, तो क्या ये परिवर्तन हमेशा सही ही होता है...? अच्छे के लिए ही होता है?"

एक जमाना वो भी था जब सन्त विनोबा भावे जी ने भूदान आंदोलन कि मुहीम चलाई थी, जिससे गरीब किसानों के पास उनका अपना जमीन उपलब्ध हो सके। उनका अपना घर हो। और एक ज़माना ये भी है कि जब मंत्रियों, बिल्डरों, बाहुबलियों और लालफीताशाही की  मिलीभगत से गरीबों की जमीन हथियाने कि जुगत चल पड़ी है, ख़ूब जोरों से। कहीं बस्तियां अग्नि-देव के भेंट चढ़ा दी जाती हैं। कहीं बुलडोज़र के। कहीं सरकारी जमीन औने-पौने दाम पर रातो-रात बेच दी जाती है। कहीं जबरन खाली करा ली जाती है। जंगल पहाड़ तक नहीं बचे हैं। और ये सब धांधलियां एक सील-सिलेवार तरीके से चलते ही जा रहा है। पर्यावरणविद् धरने दे रहे हैं। आमरण अनशन कर रहे है। यहाँ तक कि जमीन आबंटन को लेकर गरीब किसान, आदिवासी एवं प्रसासन के बीच यदा-कदा गृह-युद्ध जैसी स्थिति भी बन जाती है। नक्शलवाद ऐसी किसी गृह-युद्ध की ही उपज हो सकती है। [कृपया इस लेख को नक्सलवाद के समर्थन में न देखा जाये। ]

एक जमाना वो भी था जब जोरों-शोरों से स्वयंवर हुआ करते थे, दूर -दूर के देशों से राजाओं, राजकुमारों एवं नवयुवकों को कन्या द्वारा वर चुनाव हेतु आमंत्रित किया जाता था। स्त्री को अपना वर अपनी पसंद अनुरूप चुनने का पूर्णाधिकार प्राप्त था। इतिहास में ऐसे कई उदहारण मिल जायेंगे। और एक जमाना ये भी है कि जब कन्या के विवाह हेतु वर चुनाव अभिभावकों द्वारा किया जाता है, स्त्री को इसमे हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं रहा। स्त्री की पसंद, उसके सपने, उसकी चाहत, उसकी जिज्ञासा का कोई मोल नहीं, कोई अधिकार नहीं। बस ये मान लिया गया कि हम [अभिभावक, (पिता)] जो भी करेंगे ठीक ही करेंगे, और उसके लिए (विवाह योग्य स्त्री) विवाह योग्य वर ढूँढना हमारा कर्त्तव्य ही नहीं बल्कि हमारा अधिकार भी है। जब कहीं कोई आवाज उठती है कि हम अपना जीवनसाथी स्वयं अपनी मर्जी से चुनेंगे तो यह कहकर कि तुम अभी ना समझ हो, बच्ची हो, ये दुनियादारी कि समझ तुम्हे अभी कहाँ कहकर चुप करा दिया जाता है। और फिर वो अबला भेज दी जाती है एक ऐसे घर-परिवार में जहां उसे हर हाल में जीना है, मरते दम तक। बेटी को यह सिखा-पढ़ा कर भेजा जाता है कि जिस घर तू डोली में जायेगी, उस घर से जब तक तेरी अर्थी न उठ जाये कभी कहीं और जाने की सोचना भी मत। वही तेरा मंदिर है (ससुराल), वही तेरा भगवान (पति)। 

एक जमाना वो भी था जब किसी परिवार का तात्पर्य पुरे कुटुम्ब से हुआ करता था, कुटुम्ब एक विशालकाय वृक्ष जैसा, जिनमे कई-कई शाखाएँ एक तने से जुडी होती हैं, और तना जड़ों के सहारे अडिग खड़ा रहता। यह वृक्ष सदा ही हरे-भरे पत्तों से, फल-फूलों से गुलज़ार रहता। बड़े से बड़े आँधी-तूफानों में भी अडिग रहता। कुटुम्ब के हर सदस्यों के बीच आपसी प्रेम, सौहार्द और आदर होता। बड़े-बुजुर्गों के प्रति अटूट श्रद्धा होती। कभी किसी बात में विरोधाभास होता तो उसे आपसी समझ-बूझ से सुलझा लिया जता। तनाव अधिक हो जाते तो शांतिपूर्ण तरीके से बैठक करके अलगाव भी हो जाता। और एक जमाना ये भी है की आज कि पीढ़ी कुटुम्ब शब्द का अर्थ शब्द-कोष में तलाशती है, गूगल में ढूँढती है।  अब विवाह पूर्व माता-पिता, भाई-बहनों से परिवार होता है, और शादी होते ही, परिवार के मायने ही यकायक बदल जाते हैं। अब परिवार 'हम दो, हमारे दो' के नारे से परिभाषित होने लग जाता है। संपत्ति-जायदाद के ढेरों मुकदमे अदालत का कीमती वक्त जाया कर रहे हैं। अब बँटवारा हर समस्या का, हर विवाद का एक मात्र विकल्प रह गया है। कुटुम्ब का अस्तित्व विलुप्त हो चुका है। बच्चों को ठीक से तो ये भी नहीं पता होता कि हमारे चाचा-ताऊ कौन हैं, कितने हैं। दादा-दादी के स्नेह के अहसास से वंचित। अपूर्णता में सम्पूर्णता। 

एक जमाना वो भी था जब अख़बार स्वतन्त्रता-संग्राम में एक महत्त्वपूर्ण अधिनायक हुआ करता था, लोगों में स्वराज के प्रति जागरूकता विक्सित करने हेतु कर्त्तव्यनिष्ठता से कार्यरत हुआ करता था। जन-नायकों कि बुलंद आवाज़ अख़बार के जरिये एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाये जाते थे। प्रसाशन कि दमनकारी नीतियां भी इन्हें झेलनी पड़तीं, फिर भी ये निरंतर अपने कर्तव्य-मार्ग पर डटे  रहते, बिना किसी स्व-उद्देश्य के, बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी प्रकार के लोभ के। अखबार का एक मात्र उद्देश्य देश में जागरूकता बढ़ाना हुआ करता था। और एक जमाना ये भी है की जब अखबारों कि विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवाल झूल रहा है। आज अख़बार का उद्देस्य बदल चूका है। खबरें अख़बार कि प्राथमिकता हो चुकी हैं। खबरें अब उत्पाद बन गयी हैं। खबरों की बोली लगती है। खबरें छपने से पहले खरीदी-बेचीं जाती हैं। इन खबरों का जागरूकता से दूर-दूर तक कोई लेना न देना। अख़बार एक विकसित, संघटित, सुचारु रूप से चलने वाले उद्योग में तब्दील हो चूका है। कभी देशहित, जनहित का यह पुजारी आज बगला-भगत बन बैठा है। 

एक जमाना वो भी था जब फ़िल्में बना करती थीं तो उनमे एक अज़ीब-सी संवेदना होती, एक दर्द होता, एक मर्म होता, एक सन्देश होता, समाज का ताना-बना सा कसा हुआ होता था तब की फिल्मों में। फ़िल्में समाज का दर्पण हुआ करती थीं। हर कोई खुद को फ़िल्मी नायक से, नायिका से, किसी न किसी किरदारों से जुड़ा हुआ पता था। आज उस दौर को सिनेमा का सुनहरा दौर कहा जाता है।  और एक जमाना ये भी है कि जब फ़िल्म का समाज से, कोई भी नाता, सीधा या टेढ़ा नहीं रहा, दूर-दूर तक। आज कि फिल्मों से वो मर्म, वो दर्द, वो कशिश, वो चुभन जाने कहाँ खो गई हैं। तब की फिल्मों में जहाँ सरलता और सादगी झलकती थी, वहीँ आज की फिल्मों में फूहड़ता और नग्नता अपनी चरम पर हैं।  कहानी तो अपना अस्तित्व ही तलाशती रह जाती है। कुछेक फ़िल्म कभी-कभार अपनी छाप छोड़ भी जाती हैं। फिर भी आज हमें उस बीते वक्त को सुनहरा कहने की, बताने कि जरुरत ही भला क्यों आन पड़ी?   सोचें। 

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

बैरागी मन

                                                                                                    Image by Mike Baird, Courtesy flickr.com, 


कुछ गलियाँ वो होती हैं जो पीछे छूट जाएँ तो भी कभी नहीं भूलतीं। उन चंद गलियों में एक गली तुम्हारी भी है, जो मुझे जर्रे-जर्रे से याद है, आज भी। गुजरना होता है जब भी कहीं समीप कि तेरी गली से, मुझे पुकार वो अब भी सुनाई दे जाती है। पुकार, जो मैं कभी अनसुना नहीं कर सकता था। फिर आज क्यों अनसुना कर देता हूँ। औपचारिकता सहजता पर नकेल कस ही देती है। सारी क़समें,सारे वादे बस धरे के धरे रह जाते है। निस्ठुरता सज्जनता को निगल लेती है। काश कि कोई जादुई कलम वाकई में होती, और काश कि वो मेरे हाथों में होती, तो क्या मैं तब भी यूँ ही सब कुछ होने देता।  नहीं, तब मैं जरूर तुम्हारे मन कि उलझनों को एक सरलता देने का प्रयास करता।तुम्हारे मन के ताम्रपत्र पर कुछ ऐसे शब्द गढ़ता जिससे किसीको कोई आघात न होता। किसी का हृदय उन शब्दों कि कटुता से विचलित न होता। कुंठित न होता। परन्तु, उस जादुई कलम के अभाव से मैं आज बेबस हूँ। लाचार हूँ। यही लाचारी है जो इन कदमों को मोड़ देती है, नहीं बढ़नें देती तेरी गली कि ओर। बेबस हूँ, बस यही कहूंगा। 


कभी नहीं सोचा-जाना था कि शब्द कि कटुता इतनी विषैली भी हो सकती है, कि अंतर्मन को भी मूर्छित कर सकती है। कुछ लोग होते है जिनको दाल में हींग का होना न होना एक जैसा, तुम भी उनमे से एक होगे या हो जाओगे ये न सोचा था कभी। खैर, मुद्दतों बाद देखना हुआ था तुम्हें, सारे रोएँ थर्रा गए थे, रक्त नब्जों में दौड़ना भूल गए, जबान शब्द और कंठ स्पंदन करना भूल गए। ऐसा क्यों हुआ नहीं समझ सका। कभी समझ भी नहीं सकूंगा। तुम्हारी क्या मनोस्थिति रही होगी ये भी तो नहीं जान पाउँगा। अब तो कबीर कि यही बात जहन में आती है कि "कबीरा खड़ा बाज़ार मांगे सब कि खैर, न कहु से दोस्ती, न कहु से बैर।" तुम तो अपने ही थे, कहीं ना कहीं आज भी तो अपने ही हो। कम से कम मैं तो यही मानते आया हूँ, मानता रहूँगा। प्यार-विश्वास, रिश्ते-नाते, दोस्ती-यारी इन सब से मन अभी बैरागी नहीं हुआ है। वैसे देखा जाये तो बैराग भी तो एक बंधन ही है, बंधन में न बंधने का बंधन। तो लगता है कि ऎसा ही कोई बैराग तुमने भी पाल लिया है मुझसे। तभी तो इतनी निष्ठुरता आ गई है तुममें। 

परायों से अपनापन हासिल होने कि तीव्र गुंजाईश होती है, कई सारे जो आज अपने हैं, बेहद करीबी हैं, कभी पराये ही हुआ करते थे। किन्तु एक दफ़ा कोई अपना, बेहद अपना पराया बन जाये तो उससे फिर कभी अपनापन मिलने कि गुंजाईश नहीं बचती। एक अदना-सा बीज विशाल वृक्ष का रूप ले सकता है, और वही विशाल वृक्ष कई-कई बीज उत्पन्न कर सकते हैं। प्रकृति कि यही खूबी है। तो ये खूबी इंसानी ज़ज्बातों में क्यों नहीं? क्यों इंसानी रिश्ते प्रकृति के नियमों से परे हैं? पानी जो नदी को छोड़ समंदर से जा मिलता है, वो नदी से मिलने दोबार भी तो आता ही है। नदी उसे ठुकराती भी तो नहीं, अपने आलिंगन में फिर से भर ही लेती है। नदी जानती है कि पानी के बिना उसका अस्तित्व नहीं। पानी भी समझता है कि उसके बिना नदी में बहाव नहीं। कल-कल कि मधुर संवाद नहीं। इसीलिए चला आता है एक रस होने। जिवंत होने। पानी नदी का पूरक है। रिश्ते भी तो पूरक होते हैं एक-दूसरे के। एकाकी के जीवन में भी भला क्या रिश्ते बन सकते हैं, निभाए जा सकते हैं? या तो अहसास ख़त्म हो जाता है, या फिर जरूरत। वरना यूँ ही नहीं कोई छोड़ जाता किसी को। 

क्या एक क्षण बरसों के, करोड़ों क्षणों से बनते आये रिश्ते को, प्रेम को, संयम  को, विश्वास को, जड़ों से उखाड़ कर बेपरवाही से तहस-नहस करने कि स्फूर्ति रखता है? क्या उस एक पल में इतनी अपार शक्ति होती भी है? यक़ीनन होती होगी। नहीं होती तो क्या मेरे अस्तित्व को यूँ तहस-नहस होने देते तुम? कभी नहीं। परन्तु तुमने ऐसा सहज ही होने दिया। इसका मुझे मलाल होता था, पर अब नहीं। अब मैंने उन बिखरे टुकड़ों को समेटना शुरू कर दिया है। दरारों को भरना आसान नहीं होता, मरम्म्त कि छाप झलक ही जाती है। दरारें भर तो दी जाती हैं, पर चटखने कि आशंका बनी रहती है। किन्तु, ढहे हुए दीवार को एक नए सिरे से उठाना आसान होता है। उसमे अदम्य साहस होता है, अटूट विश्वास भी। कच्चा सूत खिंचाव सहन नहीं कर सकता, झट से टूट जाता है। वही सूत जब धागों में पिरोया जाये तो कुछ हद तक खिंचाव झेल जाता है, टूट भी जाता है। वही धागा जब तानों-बानों में कस दिया जाता है तो उनमें कमाल कि सहनशक्ति समा जाती है। अब उस एक अदने से सूत को चटखाना मुमकीन नहीं। उस धागे को तोड़ना आसान नहीं। अब उसमे अपार शक्ति है। फिर वही शक्ति इंसानी रिश्तों में क्यों नहीं? क्यों?

गुरुवार, 27 मार्च 2014

प्रारब्ध के पुतले

लहरों के बहाव में तो कूड़े-कर्कट बहा करते हैं, हम तो फिर भी इंसान हैं, विवेकी होते हैं इंसान। क्यूँ... होते हैं कि नहीं? तो क्यूँ नहीं करते हम अपने विवेक-बुद्धि का इस्तेमाल? क्यूँ हम बहाव में बहे चले जा रहे हैं? सदियों से ऐसा ही होता आ रहा है। वो कहते हैं न की "जैसी चले बयार पठी तब तैसी कीजै" तो क्या हम इतने लाचार अब भी हैं? इस युग में भी... ? की बयार के इशारों का इन्तजार करें...? बयार संग बहे चले जाएँ, मुड़ कर भी न देखें की कहाँ से आ रहे हैं... कहाँ को जा रहे हैं? अगल-बगल भी न देखें कि किनके साथ बहे जा रहे हैं? 
बस किसी ने सचेत कर दिया की लहरों से मत टकराओ, आगे नहीं बढ़ पाओगे, चूर-चूर हो जाओगे, तो बस लो भईया बैठ जाते हैं किनारे पर। प्रारब्ध कहीं ले जाये तो ले जाये, हम लहरों से टकराने की हिमाकत क्यूँ कर करें भला, हम कोई हनुमान-जामवन्त तो हैं नहीं की फिर से कोई सेतु बना लेंगे वो भी महज शब्दों के बल पर...! 
नहीं भाई हम तो न हिलेंगे, यूँ ही बैठे रहेंगे. यही बठे-बैठे करवट लेते रहेंगे. अपनी पीठ की दिशा बदलते रहेंगे, भले दशा बदले न बदले. क्या फ़र्क पड़ता है? क्या फ़र्क पड़ जायेगा। 
जहाँ सभी बहे जा रहे हैं तो भला हम भी क्यूँ न बहते चले जाएँ? बहते रहने में शक्ति क्षीण नहीं होती, टकराने में होती है। और वैसे भी टकराव कोई अच्छी बात तो होती नहीं। सब के साथ बहे चलने में ही भलाई होती है। बस एक-दूसरे का हाथ थामे बहे चले जाएँ। पर यदि सभी मजबूती से हाथ थाम लें तो टकराया भी तो जा सकता है। किसी किस्से के सार में पढ़ा था कि एकता में बल होता है, अपार शक्ति। परन्तु, टकराव कि अवस्था में कष्ट भी तो होगा। यूँ भी हो सकता है कि कई हाथ छूट जाएँ, या टूट ही जाएँ। हो न हो वो हाथ हमारा ही हो....! हो क्या सकता है, होता ही है। इतिहास भरा पड़ा है। फिर हम भी क्यों कूदें भला ऐसे इतिहास के दलदल में। हम तो बैठे ही अच्छे-भले हैं। 

बैठना ही हमारा प्रारब्ध है। या यूँ भी कह सकते हैं के हमने बैठे रहने को ही अपना प्रारब्ध बना लिया है।