चित्र साभार : glycerine102, flickr.com
"बदलते वक्त के साथ-साथ सामाजिक एवं व्यक्तिगत परिवेश भी बदलने लगे हैं. परिवर्तन प्रकृति का नियम है ऐसा कहा जाता है, तो क्या ये परिवर्तन हमेशा सही ही होता है...? अच्छे के लिए ही होता है?"
एक जमाना वो भी था जब सन्त विनोबा भावे जी ने भूदान आंदोलन कि मुहीम चलाई थी, जिससे गरीब किसानों के पास उनका अपना जमीन उपलब्ध हो सके। उनका अपना घर हो। और एक ज़माना ये भी है कि जब मंत्रियों, बिल्डरों, बाहुबलियों और लालफीताशाही की मिलीभगत से गरीबों की जमीन हथियाने कि जुगत चल पड़ी है, ख़ूब जोरों से। कहीं बस्तियां अग्नि-देव के भेंट चढ़ा दी जाती हैं। कहीं बुलडोज़र के। कहीं सरकारी जमीन औने-पौने दाम पर रातो-रात बेच दी जाती है। कहीं जबरन खाली करा ली जाती है। जंगल पहाड़ तक नहीं बचे हैं। और ये सब धांधलियां एक सील-सिलेवार तरीके से चलते ही जा रहा है। पर्यावरणविद् धरने दे रहे हैं। आमरण अनशन कर रहे है। यहाँ तक कि जमीन आबंटन को लेकर गरीब किसान, आदिवासी एवं प्रसासन के बीच यदा-कदा गृह-युद्ध जैसी स्थिति भी बन जाती है। नक्शलवाद ऐसी किसी गृह-युद्ध की ही उपज हो सकती है। [कृपया इस लेख को नक्सलवाद के समर्थन में न देखा जाये। ]
एक जमाना वो भी था जब जोरों-शोरों से स्वयंवर हुआ करते थे, दूर -दूर के देशों से राजाओं, राजकुमारों एवं नवयुवकों को कन्या द्वारा वर चुनाव हेतु आमंत्रित किया जाता था। स्त्री को अपना वर अपनी पसंद अनुरूप चुनने का पूर्णाधिकार प्राप्त था। इतिहास में ऐसे कई उदहारण मिल जायेंगे। और एक जमाना ये भी है कि जब कन्या के विवाह हेतु वर चुनाव अभिभावकों द्वारा किया जाता है, स्त्री को इसमे हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं रहा। स्त्री की पसंद, उसके सपने, उसकी चाहत, उसकी जिज्ञासा का कोई मोल नहीं, कोई अधिकार नहीं। बस ये मान लिया गया कि हम [अभिभावक, (पिता)] जो भी करेंगे ठीक ही करेंगे, और उसके लिए (विवाह योग्य स्त्री) विवाह योग्य वर ढूँढना हमारा कर्त्तव्य ही नहीं बल्कि हमारा अधिकार भी है। जब कहीं कोई आवाज उठती है कि हम अपना जीवनसाथी स्वयं अपनी मर्जी से चुनेंगे तो यह कहकर कि तुम अभी ना समझ हो, बच्ची हो, ये दुनियादारी कि समझ तुम्हे अभी कहाँ कहकर चुप करा दिया जाता है। और फिर वो अबला भेज दी जाती है एक ऐसे घर-परिवार में जहां उसे हर हाल में जीना है, मरते दम तक। बेटी को यह सिखा-पढ़ा कर भेजा जाता है कि जिस घर तू डोली में जायेगी, उस घर से जब तक तेरी अर्थी न उठ जाये कभी कहीं और जाने की सोचना भी मत। वही तेरा मंदिर है (ससुराल), वही तेरा भगवान (पति)।
एक जमाना वो भी था जब किसी परिवार का तात्पर्य पुरे कुटुम्ब से हुआ करता था, कुटुम्ब एक विशालकाय वृक्ष जैसा, जिनमे कई-कई शाखाएँ एक तने से जुडी होती हैं, और तना जड़ों के सहारे अडिग खड़ा रहता। यह वृक्ष सदा ही हरे-भरे पत्तों से, फल-फूलों से गुलज़ार रहता। बड़े से बड़े आँधी-तूफानों में भी अडिग रहता। कुटुम्ब के हर सदस्यों के बीच आपसी प्रेम, सौहार्द और आदर होता। बड़े-बुजुर्गों के प्रति अटूट श्रद्धा होती। कभी किसी बात में विरोधाभास होता तो उसे आपसी समझ-बूझ से सुलझा लिया जता। तनाव अधिक हो जाते तो शांतिपूर्ण तरीके से बैठक करके अलगाव भी हो जाता। और एक जमाना ये भी है की आज कि पीढ़ी कुटुम्ब शब्द का अर्थ शब्द-कोष में तलाशती है, गूगल में ढूँढती है। अब विवाह पूर्व माता-पिता, भाई-बहनों से परिवार होता है, और शादी होते ही, परिवार के मायने ही यकायक बदल जाते हैं। अब परिवार 'हम दो, हमारे दो' के नारे से परिभाषित होने लग जाता है। संपत्ति-जायदाद के ढेरों मुकदमे अदालत का कीमती वक्त जाया कर रहे हैं। अब बँटवारा हर समस्या का, हर विवाद का एक मात्र विकल्प रह गया है। कुटुम्ब का अस्तित्व विलुप्त हो चुका है। बच्चों को ठीक से तो ये भी नहीं पता होता कि हमारे चाचा-ताऊ कौन हैं, कितने हैं। दादा-दादी के स्नेह के अहसास से वंचित। अपूर्णता में सम्पूर्णता।
एक जमाना वो भी था जब अख़बार स्वतन्त्रता-संग्राम में एक महत्त्वपूर्ण अधिनायक हुआ करता था, लोगों में स्वराज के प्रति जागरूकता विक्सित करने हेतु कर्त्तव्यनिष्ठता से कार्यरत हुआ करता था। जन-नायकों कि बुलंद आवाज़ अख़बार के जरिये एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाये जाते थे। प्रसाशन कि दमनकारी नीतियां भी इन्हें झेलनी पड़तीं, फिर भी ये निरंतर अपने कर्तव्य-मार्ग पर डटे रहते, बिना किसी स्व-उद्देश्य के, बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी प्रकार के लोभ के। अखबार का एक मात्र उद्देश्य देश में जागरूकता बढ़ाना हुआ करता था। और एक जमाना ये भी है की जब अखबारों कि विश्वसनीयता पर बहुत बड़ा सवाल झूल रहा है। आज अख़बार का उद्देस्य बदल चूका है। खबरें अख़बार कि प्राथमिकता हो चुकी हैं। खबरें अब उत्पाद बन गयी हैं। खबरों की बोली लगती है। खबरें छपने से पहले खरीदी-बेचीं जाती हैं। इन खबरों का जागरूकता से दूर-दूर तक कोई लेना न देना। अख़बार एक विकसित, संघटित, सुचारु रूप से चलने वाले उद्योग में तब्दील हो चूका है। कभी देशहित, जनहित का यह पुजारी आज बगला-भगत बन बैठा है।
एक जमाना वो भी था जब फ़िल्में बना करती थीं तो उनमे एक अज़ीब-सी संवेदना होती, एक दर्द होता, एक मर्म होता, एक सन्देश होता, समाज का ताना-बना सा कसा हुआ होता था तब की फिल्मों में। फ़िल्में समाज का दर्पण हुआ करती थीं। हर कोई खुद को फ़िल्मी नायक से, नायिका से, किसी न किसी किरदारों से जुड़ा हुआ पता था। आज उस दौर को सिनेमा का सुनहरा दौर कहा जाता है। और एक जमाना ये भी है कि जब फ़िल्म का समाज से, कोई भी नाता, सीधा या टेढ़ा नहीं रहा, दूर-दूर तक। आज कि फिल्मों से वो मर्म, वो दर्द, वो कशिश, वो चुभन जाने कहाँ खो गई हैं। तब की फिल्मों में जहाँ सरलता और सादगी झलकती थी, वहीँ आज की फिल्मों में फूहड़ता और नग्नता अपनी चरम पर हैं। कहानी तो अपना अस्तित्व ही तलाशती रह जाती है। कुछेक फ़िल्म कभी-कभार अपनी छाप छोड़ भी जाती हैं। फिर भी आज हमें उस बीते वक्त को सुनहरा कहने की, बताने कि जरुरत ही भला क्यों आन पड़ी? सोचें।
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